एक लेखक हैं- डॉ. कोइनराद एलस्ट(Dr. Koenraad Elst)। इनकी एक किताब है- डिक्लॉनाइजिंग द हिंदू माइंड (Decolonizing the Hindu Mind)। इस किताब का एक चैप्टर विशेष रूप से इस बात से संबंधित है कि कैसे इस्लामवादियों ने आर्य समाज को नहीं पनपने देने के लिए सड़क पर हिंसा और हत्याओं का इस्तेमाल किया।
किताब के पेज नंबर 121 में कहा गया है कि स्वामी दयानंद की आर्य समाज की जीवनी (सत्यार्थ प्रकाश) में दावा किया गया कि इस्लाम की सार्वजनिक आलोचना के कारण, गंगा नदी के तट पर ध्यान करते समय उन पर मुसलमानों ने हमला किया था। कुछ मुस्लिम बहुल रियासतों में आपत्तिजनक अध्याय पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और 1944 में मुस्लिम बहुल प्रांत सिंध में भी प्रतिबंध लगा दिया गया था।
किताब के पेज नंबर 123 में बताया गया कि भारतीय मुसलमानों को धर्मान्तरण (घर-वापसी) करने के लिए प्रेरित करने के लिए हिंदू धर्म के शुद्धि कार्यकर्ताओं ने तर्क दिया कि उनके पूर्वजों पर इस्लाम में परिवर्तित होने के लिए दबाव डाला गया या मजबूर किया गया। उनका कहना था कि मुस्लिम शासन की समाप्ति के बाद अब इस्लाम धर्म में बने रहने का कोई मतलब नहीं है।
पंडित लेख राम की ‘रिसाला-ए-जिहाद’ को लेकर मुसलमानों ने माँग की कि इस पुस्तक पर प्रतिबंध लगाया जाए। अदालत में कई बहसों के बाद, वे 1896 में वो हार गए। लेकिन मार्च 1897 में लेखराम की हत्या कर दी गई। मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद (पैगंबर का दूत होने का दावा करने वाला इस्लाम के अहमदिया संप्रदाय का संस्थापक) सहित कुछ मुसलमानों ने इस हत्या की खुलेआम सराहना करते हुए कहा, “मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद ने एक पुस्तक प्रकाशित किया, जिसमें उन्होंने अल्लाह को अपनी भविष्यवाणी पूरी करने के लिए धन्यवाद दिया, जिसमें उन्होंने कहा था कि लेखराम हिंसक मौत मारा जाएगा।”
इसके बाद कई व्यक्तियों ने धमकी भरे पत्र प्राप्त करने की सूचना दी और पूरे प्रांत में दीवार पर रहस्यमय नोटिस दिखाई दिए। जिसमें कहा गया, “सभी हिंदुओं को इस्लामी नबियों को याद करने और उन पर विश्वास करने की चेतावनी दी जाती है; अन्यथा उन्हें लेख राम की तरह मार दिया जाएगा। शुद्धि सभा और आर्य समाज के सदस्यों को स्वयं को मृत पुरुष मानना चाहिए।” लेख राम के अंतिम संस्कार में 20000 लोग शामिल हुए थे। इसके बाद लाला मुंशी राम (बाद में स्वामी श्रद्धानंद के रूप में नियुक्त हुए) ने एक समाचार पत्र शुरू किया, जिसे लेखराम के उपनाम आर्य मुसाफिर, ‘आर्य यात्री’ के नाम से जाना जाता है।
किताब के पेज नंबर 127 में कहा गया है कि इस्लाम की आलोचना करने के कारण आर्य समाज को मानने वाले लोगों की हत्याएँ की गईं। हत्याओं से भयभीत होने के बावजूद कुछ लोग खड़े हुए और कहा कि आर्य समाज की नीति सही थी। जिसके बाद दंगे हुए। आर्य समाज के लोगों की हत्याओं और बाद के दंगों से माहौल थोड़ा अनियंत्रित हो गया, जिसमें पुलिस भी उनकी रक्षा करने में असफल रही।
पेज नंबर 317 में कहा गया कि आर्य समाज के संस्थापक दयानंद सरस्वती ने इस्लाम की आलोचना करते हुए एक किताब लिखी। हालाँकि यह कट्टरपंथियों को रास नहीं आया। इसमें उन्होंने काबा को लेकर सवाल उठाया। उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध करने वालों पर सवाल उठाते हुए पूछा, “अगर मक्का के काबा में काला पत्थर अल्लाह का प्रतिनिधित्व कर सकता है, तो क्या मोहम्मद और उसके भतीजे अली द्वारा नष्ट की गई काबा में 360 प्रतिमाएँ भी ईश्वरीय शक्ति का प्रतिनिधित्व नहीं होनी चाहिए? उस सोमनाथ मंदिर में शिव लिंग क्यों नहीं है, जिसे मुस्लिम सेनाओं ने समय-समय पर नष्ट किया?”
दयानंद मुसलमानों को चुनौती देते हुए कहते हैं: “वे भी, जिन्हें आप मूर्तिपूजक कहते हैं, वे मूर्ति को भगवान नहीं मानते हैं। वे मूर्ति के पीछे के भगवान को पूजा करने के लिए मानते हैं। यदि आप मूर्ति विध्वंसक हैं, तो आप किब्ला (Qibla, पवित्र मस्जिद) नामक बड़ी मूर्ति को क्यों नहीं तोड़ते?”
किताब के पेज नंबर 324 में कहा गया है कि सातवीं शताब्दी के अरब में पैगंबर मोहम्मद के जीवन और कार्यों के संदर्भ के बिना “समकालीन भारतीय इस्लाम” का एक विषय के रूप में चर्चा करना बकवास है, क्योंकि मोहम्मद के मिशन और उनके उदाहरणों के बिना कोई इस्लाम नहीं। उदाहरण के लिए मोहम्मद के व्यवहार के स्थायी संदर्भ के बिना इस्लामी कानून का कोई वजूद ही नहीं। जिहाद की अवधारणा के पीछे का वास्तविक अर्थ और इरादा उस सबसे अच्छे स्रोत के आधार पर जाँचा जा सकता है, जहाँ से इस्लामी विद्वान अपने धर्म के अल्फ़ा और ओमेगा सीखते हैं।
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